भीड़ में कम से कम आज़ाद तो उड़ते है।
खामोशी का एहसास उन्हें हर पल रहता हैं
भीड़ की शोर से ,लोगो की चोच से आज़ाद तो रहते हैं।
अपनी सुनने को करने को आज़ाद तो रहते हैं।
समझने और समझाने से आज़ाद तो रहते है.
अपने ख़्वाबों का आसमान लिए उड़ते हैं।
कौन अपना कौन पराया वो थोड़ी ही सोचते हैं।
सब लिए संग, हवा से बाते कर बेफिक्र उड़ते हैं।
अपने हौसलों की उड़न परिन्दे ही उड़ते हैं
हम सब तो भीड़ मैं कीड़ों के तरह रेंगते हैं।
सरहदों का डर हमें हर पल रहता है।
परिन्दों को सरहदों का कोई डर थोड़ी ही होता है .
उनके पंख ही उनके सपने हैं , हौसले ही उनकी उड़ान।
इसलिए मुझे परिन्दे ही अच्छे लगते है।
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